कविता संग्रह >> अपना वजूद अपना वजूदश्याम पलट पाण्डेय
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प्रस्तुत है कविता संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्यामपलट पांडेय का यह तीसरा कविता संग्रह
है। पांडेय वर्तमान समय और उससे
प्रत्यक्ष आवेग के कवि हैं। हमारा सामाजिक परिवेश जीवन मूल्यों की टूटन और
त्रासद कवि के लिए इस वर्तमान की कोई भी शक्ल अनिवार्यतः एक विडम्बना बोध
से जन्म लेती है। इन कविताओं में रोजमर्रा के जीवन के सन्दर्भ हैं, छोटे
बड़े प्रसंग और परिस्थितयाँ हैं। पांडेय जीवन के विद्रूप से सीधे मुठभेड़
करते हैं। कहीं इन कविताओं में एक विकलता है तो कहीं एक प्रश्ननाकुलता।
कहीं अपने रचनाकर्म के प्रति ही एक बुनियादी संसय का भाव भी। दरसल यही
हमारे समय के अनुभव के विभिन्न शेड्स हैं। विसंगतियों के चित्रों के साथ
इन कविताओं में परिवर्तन की बुनियादी कामना भी है।
रिक्त अनुभवों के बीच से उठी से कविताएँ जीवन के किसी बेशकीमती तत्व को बचाये रखने की विकलता की कविताएँ हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि श्यामपलट पांडेय का कवि अपने मन जातीय अनुभव-बोध की जमीन में गहरा जुड़ा हुआ है। बिडम्बनाओं के चक्रव्यूह में फँसे हुए रचनाकार की अपनी जड़ों की ओर लौटने की एक बेचैनी इन कविताओं में दिखाई पड़ती है। इसलिए आस-पास की दुनिया और घर-परिवार की अंतरंगता के बीच अनेक चित्र इन कविताओं में मौजूद हैं। कहना न होगा कि कुटुम्ब से जुड़ी संवेदना हमारे समय में अमानवीय ताकतों के बरक्स एक नया अर्थ ग्रहण करती हैं। अपने पास-पड़ोस से यह लगाव इस दौर में है यह शायद किसी भी दौर में कविता हमेशा आत्मीय और प्रमाणिक बनता रहा है। पांडेय की यह कविताएँ वादों और मुहावरों के शोरगुल से दूर अपनी नैसर्गिक ऊर्जा जीवन राग और सहज अनुभूति के बल पर अपने बजूद का ऐहसास करती हैं।
रिक्त अनुभवों के बीच से उठी से कविताएँ जीवन के किसी बेशकीमती तत्व को बचाये रखने की विकलता की कविताएँ हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि श्यामपलट पांडेय का कवि अपने मन जातीय अनुभव-बोध की जमीन में गहरा जुड़ा हुआ है। बिडम्बनाओं के चक्रव्यूह में फँसे हुए रचनाकार की अपनी जड़ों की ओर लौटने की एक बेचैनी इन कविताओं में दिखाई पड़ती है। इसलिए आस-पास की दुनिया और घर-परिवार की अंतरंगता के बीच अनेक चित्र इन कविताओं में मौजूद हैं। कहना न होगा कि कुटुम्ब से जुड़ी संवेदना हमारे समय में अमानवीय ताकतों के बरक्स एक नया अर्थ ग्रहण करती हैं। अपने पास-पड़ोस से यह लगाव इस दौर में है यह शायद किसी भी दौर में कविता हमेशा आत्मीय और प्रमाणिक बनता रहा है। पांडेय की यह कविताएँ वादों और मुहावरों के शोरगुल से दूर अपनी नैसर्गिक ऊर्जा जीवन राग और सहज अनुभूति के बल पर अपने बजूद का ऐहसास करती हैं।
यह महानगर
कुछ भी नहीं है
मेरे आसपास
बस समुद्र से घिरा हुआ
यह महानगर है
जिसके रेशे-रेश में
भरा है प्रदूषण
और पेड़
जहाँ आदमी से ज्यादा
ताकतवर है
सड़क के बीचोबीच खड़े पेड़ के
कटने को लेकर
हिल जाती है
ऊँची से ऊँची अदालत
जब कि मुश्किल से मिलता है
कफन
किसी लावारिस के मरने पर
कितनी पीढ़ियाँ यहाँ
फुटपाथ पर जन्मतीं
और हो जाती हैं बूढ़ी
विवश हैं तमाम लोग
ड्रेनेज के तट पर रहने के लिए
यहाँ आकाश छूती इमारतों में कैद
अकूत वैभव है
ग्लैमर है
अपराध है
उसे सँभालते
खरीदते और
बेचते
चन्द लोग हैं
समुद्र मेरा नहीं है
हम जैसों का भी नहीं है
उनका है
जो खरीद लेते हैं
लहरें
उसकी छाती पर
दौड़ाते हैं जहाज
उसके कलेजे से
निकालते हैं
सोने से भी बेशकीमती
तेल
उसके गर्भ में
छिपाकर रखते हैं
पनडुब्बियों में भरे
सृष्टि-संहारक हथियार
समुद्र की ताकत पर
धमकाते और
हथिया लेते हैं हमारी चीज़ें
कौड़ियों के मोल
पकड़ाते रहते हैं
हमारे हाथ में बन्दूक
और पड़ोसी के हाथ में
स्टेनगन
हम खरीदते जाते हैं
नित नई बन्दूकें
चलाते हैं हम
अपनों पर भी बन्दूक
लोगों को यहाँ से समुद्र
और समुद्र पार दिखता है
मेरे आसपास
बस समुद्र से घिरा हुआ
यह महानगर है
जिसके रेशे-रेश में
भरा है प्रदूषण
और पेड़
जहाँ आदमी से ज्यादा
ताकतवर है
सड़क के बीचोबीच खड़े पेड़ के
कटने को लेकर
हिल जाती है
ऊँची से ऊँची अदालत
जब कि मुश्किल से मिलता है
कफन
किसी लावारिस के मरने पर
कितनी पीढ़ियाँ यहाँ
फुटपाथ पर जन्मतीं
और हो जाती हैं बूढ़ी
विवश हैं तमाम लोग
ड्रेनेज के तट पर रहने के लिए
यहाँ आकाश छूती इमारतों में कैद
अकूत वैभव है
ग्लैमर है
अपराध है
उसे सँभालते
खरीदते और
बेचते
चन्द लोग हैं
समुद्र मेरा नहीं है
हम जैसों का भी नहीं है
उनका है
जो खरीद लेते हैं
लहरें
उसकी छाती पर
दौड़ाते हैं जहाज
उसके कलेजे से
निकालते हैं
सोने से भी बेशकीमती
तेल
उसके गर्भ में
छिपाकर रखते हैं
पनडुब्बियों में भरे
सृष्टि-संहारक हथियार
समुद्र की ताकत पर
धमकाते और
हथिया लेते हैं हमारी चीज़ें
कौड़ियों के मोल
पकड़ाते रहते हैं
हमारे हाथ में बन्दूक
और पड़ोसी के हाथ में
स्टेनगन
हम खरीदते जाते हैं
नित नई बन्दूकें
चलाते हैं हम
अपनों पर भी बन्दूक
लोगों को यहाँ से समुद्र
और समुद्र पार दिखता है
विदेश
युवाओं पर सवार रहता है भूत
सात समुन्दर पार जाने का
राजनेता की सत्ता पर टिकी हुई
आँख की तरह
गड़ी रहती है
यहाँ के छात्रों की नजर
दूरदेश के डॉलर पर
चारों ओर पानी है
ज्वार और भाटे का
पश्चिमी घाट की पर्वत श्रृंखलाएँ
अपनी क्षीण होती
अँजुरी में भरकर
पिलाती हैं मीठा जल
इस महानगर को
घर यहाँ किसी का नहीं है
घर महज आश्रय है
शैंटी, झोपड़पट्टी, चाल, खोली
फ्लैट, रो हाउस
उसी के अनेक मुकाम हैं
आश्रय मिलना यहाँ
रोजगार पाने से भी ज्यादा
कठिन है
बेवड़े की तरह
सबसे अधिक दुर्नाम है
यहाँ पर
सात समुन्दर पार जाने का
राजनेता की सत्ता पर टिकी हुई
आँख की तरह
गड़ी रहती है
यहाँ के छात्रों की नजर
दूरदेश के डॉलर पर
चारों ओर पानी है
ज्वार और भाटे का
पश्चिमी घाट की पर्वत श्रृंखलाएँ
अपनी क्षीण होती
अँजुरी में भरकर
पिलाती हैं मीठा जल
इस महानगर को
घर यहाँ किसी का नहीं है
घर महज आश्रय है
शैंटी, झोपड़पट्टी, चाल, खोली
फ्लैट, रो हाउस
उसी के अनेक मुकाम हैं
आश्रय मिलना यहाँ
रोजगार पाने से भी ज्यादा
कठिन है
बेवड़े की तरह
सबसे अधिक दुर्नाम है
यहाँ पर
अक्खा दिन और रात
सड़क पर खाली-पीली
भागती
चमचमाती कारों के बीच
ब्रह्ममुहूर्त में उठकर
अपनी जूनी साइकिल पर
चालीस साल से भी अधिक समय से
आधे महानगर की
परिक्रमा करता
आज भी यहाँ बाँटता है
रहमान
घर-घर जाकर अखबार
उठाए
हैंडिल पर टँगे थैलों के भार से
चरमराती
अपनी ओर झुकी
साइकिल का बोझ
पसीने से लथपथ
अप्पू
पहुँचाता है
बिना नागा बड़े भोर
हर दरवाजे पर दूध
भागती
चमचमाती कारों के बीच
ब्रह्ममुहूर्त में उठकर
अपनी जूनी साइकिल पर
चालीस साल से भी अधिक समय से
आधे महानगर की
परिक्रमा करता
आज भी यहाँ बाँटता है
रहमान
घर-घर जाकर अखबार
उठाए
हैंडिल पर टँगे थैलों के भार से
चरमराती
अपनी ओर झुकी
साइकिल का बोझ
पसीने से लथपथ
अप्पू
पहुँचाता है
बिना नागा बड़े भोर
हर दरवाजे पर दूध
सर पर
आधे क्विंटल से भी भारी
टोकरा उठाए
नंगे पाँव
रोज सात किलोमीटर नापता
दर-दर भटकता
सब्जी और फल बेचता है
रामबरन
सपने हैं यहाँ
बहुरंगी
पीढ़ी दर पीढ़ी
पोढ़ होते
शैंटी से झोपड़पट्टी
चाल से फ्लैट तक पहुँचने
इंजीनियर, डॉक्टर और उद्योगपति
बनने की महत्त्वाकांक्षा पिरोते
रातोंरात धन कुबेर बनने के
सपने
टोकरा उठाए
नंगे पाँव
रोज सात किलोमीटर नापता
दर-दर भटकता
सब्जी और फल बेचता है
रामबरन
सपने हैं यहाँ
बहुरंगी
पीढ़ी दर पीढ़ी
पोढ़ होते
शैंटी से झोपड़पट्टी
चाल से फ्लैट तक पहुँचने
इंजीनियर, डॉक्टर और उद्योगपति
बनने की महत्त्वाकांक्षा पिरोते
रातोंरात धन कुबेर बनने के
सपने
अगस्त, 2002
टहँकती आयु के दिन
अब बाकी क्या बचा है
इस धरती पर
जो वे लड़े रहे हैं युद्ध
बदल रहे हैं
इंसानियत की परिभाषा
और क्षितिज के कैलेंडर से
टपकाते जा रहे हैं
टहँकती आयु के दिन
और तेजी से वे
दौड़ रहे हैं
सुरक्षित ठिकानों की
तलाश में
क्योंकि रत्नप्रसूता
कंगाल धरती का
कोई चप्पा शायद ही
अब उनके लिए
महफूज हो
उन्हें ऐसा कुछ क्यों करना है
जो कभी न हुआ हो
आज तक
हम क्यों बड़ी हसरत से
थाम रहे हैं
उनकी दी हुई
चमचमाती कुल्हाड़ियाँ
यह जानते हुए भी कि
कुल्हाड़ी का धर्म
सिर्फ काटना है
छोटे बड़े
हरे सूखे
हर दरख्त को
कर देना है
धराशायी
हम आज भी भूल रहे हैं
कुल्हाड़ी
चलाने वाले की मर्जी से
कभी नहीं चलती
उसे सदैव चलाता है
एक मतलबी दिमाग
सम्मोहन की
गिरफ्त में लेकर
इस धरती पर
जो वे लड़े रहे हैं युद्ध
बदल रहे हैं
इंसानियत की परिभाषा
और क्षितिज के कैलेंडर से
टपकाते जा रहे हैं
टहँकती आयु के दिन
और तेजी से वे
दौड़ रहे हैं
सुरक्षित ठिकानों की
तलाश में
क्योंकि रत्नप्रसूता
कंगाल धरती का
कोई चप्पा शायद ही
अब उनके लिए
महफूज हो
उन्हें ऐसा कुछ क्यों करना है
जो कभी न हुआ हो
आज तक
हम क्यों बड़ी हसरत से
थाम रहे हैं
उनकी दी हुई
चमचमाती कुल्हाड़ियाँ
यह जानते हुए भी कि
कुल्हाड़ी का धर्म
सिर्फ काटना है
छोटे बड़े
हरे सूखे
हर दरख्त को
कर देना है
धराशायी
हम आज भी भूल रहे हैं
कुल्हाड़ी
चलाने वाले की मर्जी से
कभी नहीं चलती
उसे सदैव चलाता है
एक मतलबी दिमाग
सम्मोहन की
गिरफ्त में लेकर
जून,2002
उनका बेटा करीम है
होश सँभालने के बाद
चौमुहानियाँ पार करता
चक्कर काटता गलियों के
कम-से-कम वहाँ मैं
आधा दर्जन बार गया हूँ
बेरोजगारी के दिनों में
हफ्तों रहा भी हूँ
भटक गया हूँ हर बार
वहाँ तक पहुँचने का रास्ता
सड़कमुखी गली से
चार फुट गहरे
जिसके भूतल में
जीरो वाट की रोशनी फेंकते
पचीस वाट के जलते लट्टुओं के बीच
पसीने से तरबतर
एक छोटी-सी मशीन के सामने
लेई लगाते कागजों पर
किताबों को जिल्द से सजाते
रहीम चाचा को देखकर ही
आश्वस्त होता था कि
यही वह दरबोंवाली कोठी है
उसी कोठी के एक तल पर
मेरी बड़ी बहन भी रहती थी
जिसका बेरोजगार बड़बोला पति
अपना ज्यादा समय
तन्त्रमन्त्र की दुनिया का
पिंगल कतरने
और शेष पड़ोसियों की
शिकायतें लिखकर भेजने में
बिताता था
वह मानता था कि
उसी ने साध रखा है
महादेव का त्रिशूल
जिस पर आज भी टिका हुआ है
उसका नामचीन शहर
बहन जब भी बाजार जातीं
सौंप देतीं चाभी रहीम चाचा को
समय बेसमय
आ धमकने पर
गंगा नहाने आए मेहमानों के
ऊपर से आवाज देकर
मँगवाते मिठाई नमकीन
सभी किराएदार
अकसर रहीम चाचा से ही
फिर मेरा वहाँ जाना हुआ
बहन के विधवा होने पर
और अब बहन की मृत्यु पर
एक दशक बाद
अब वहाँ न बहन है
न रहीम चाचा
चरमराती कोठी के
उसी अँधेरे तल में
उन्हीं लट्टुओं के बीच
वैसे ही पसीने से तरबतर
उसी मशीन के सामने
वहाँ अब
उनका बेटा करीम है
चौमुहानियाँ पार करता
चक्कर काटता गलियों के
कम-से-कम वहाँ मैं
आधा दर्जन बार गया हूँ
बेरोजगारी के दिनों में
हफ्तों रहा भी हूँ
भटक गया हूँ हर बार
वहाँ तक पहुँचने का रास्ता
सड़कमुखी गली से
चार फुट गहरे
जिसके भूतल में
जीरो वाट की रोशनी फेंकते
पचीस वाट के जलते लट्टुओं के बीच
पसीने से तरबतर
एक छोटी-सी मशीन के सामने
लेई लगाते कागजों पर
किताबों को जिल्द से सजाते
रहीम चाचा को देखकर ही
आश्वस्त होता था कि
यही वह दरबोंवाली कोठी है
उसी कोठी के एक तल पर
मेरी बड़ी बहन भी रहती थी
जिसका बेरोजगार बड़बोला पति
अपना ज्यादा समय
तन्त्रमन्त्र की दुनिया का
पिंगल कतरने
और शेष पड़ोसियों की
शिकायतें लिखकर भेजने में
बिताता था
वह मानता था कि
उसी ने साध रखा है
महादेव का त्रिशूल
जिस पर आज भी टिका हुआ है
उसका नामचीन शहर
बहन जब भी बाजार जातीं
सौंप देतीं चाभी रहीम चाचा को
समय बेसमय
आ धमकने पर
गंगा नहाने आए मेहमानों के
ऊपर से आवाज देकर
मँगवाते मिठाई नमकीन
सभी किराएदार
अकसर रहीम चाचा से ही
फिर मेरा वहाँ जाना हुआ
बहन के विधवा होने पर
और अब बहन की मृत्यु पर
एक दशक बाद
अब वहाँ न बहन है
न रहीम चाचा
चरमराती कोठी के
उसी अँधेरे तल में
उन्हीं लट्टुओं के बीच
वैसे ही पसीने से तरबतर
उसी मशीन के सामने
वहाँ अब
उनका बेटा करीम है
अप्रैल, 2002
आज सुबह से घर में
कई अखबार चाटे
कुछ अंग्रेजी मैगजीन्स पढ़ीं
हिन्दी की कई ऊँची पत्रिकाएँ चुबलाईं
टीवी पर उत्तेजक कार्यक्रम देखे
सुनता रहा बेटे का
नई जमीन तोड़ने का संकल्प
घिरती साँझ की परछाइयों जैसी
अकस्मात् दाखिल होती हैं माँ
अभी तो पुण्य तिथि में समय है ?
पिता चल रहे हैं
संगम से कुछ दूर
यमुना के तट पर
उन्हें कन्धे पर उठाए
ऐसे ही बीत गया पूरा दिन
रात में टूट रहे हैं तारे
हँसुलीनुमा चाँद
धँस रहा है
अँधेरे की खोह में
माँ लेकर उड़ रही हैं
बच्चों के घोंसले
दूर बहुत दूर
आकाशगंगा के उजाले में
ऐसे ही गुजरी पूरी रात
भोर के आने तक
कुछ अंग्रेजी मैगजीन्स पढ़ीं
हिन्दी की कई ऊँची पत्रिकाएँ चुबलाईं
टीवी पर उत्तेजक कार्यक्रम देखे
सुनता रहा बेटे का
नई जमीन तोड़ने का संकल्प
घिरती साँझ की परछाइयों जैसी
अकस्मात् दाखिल होती हैं माँ
अभी तो पुण्य तिथि में समय है ?
पिता चल रहे हैं
संगम से कुछ दूर
यमुना के तट पर
उन्हें कन्धे पर उठाए
ऐसे ही बीत गया पूरा दिन
रात में टूट रहे हैं तारे
हँसुलीनुमा चाँद
धँस रहा है
अँधेरे की खोह में
माँ लेकर उड़ रही हैं
बच्चों के घोंसले
दूर बहुत दूर
आकाशगंगा के उजाले में
ऐसे ही गुजरी पूरी रात
भोर के आने तक
मार्च, 2002Mh4>
वह मैं नहीं हूँ
जो तुम्हारा है
वह मेरा नहीं है
जो तुम हो
वह मैं नहीं हूँ
लेकिन तुम्हारा होना
मेरे होने की पहली शर्त है
एक आयुहीन कुचैली नदी
बहती आई है मेरी नसों में
जो धीरे-धीरे ठोस होती जा रही है
उसने मेरे भीतर
पैदा कर दिए हैं
कई ठोस वृत्त
उन्हीं में से
शायद एक वृत्त
तुम्हारा है
कभी-कभी समाने लगता है
एक में दूसरा वृत्त
पहला तीसरे में
फिर सारे वृत्त
एक वृहदाकार महावृत्त में
अचानक
सब गुम हो जाता है
मटमैले अथाह पानी में
तब वहाँ
न तुम होती हो
न मैं
न ही
कुचैली नदी
वह मेरा नहीं है
जो तुम हो
वह मैं नहीं हूँ
लेकिन तुम्हारा होना
मेरे होने की पहली शर्त है
एक आयुहीन कुचैली नदी
बहती आई है मेरी नसों में
जो धीरे-धीरे ठोस होती जा रही है
उसने मेरे भीतर
पैदा कर दिए हैं
कई ठोस वृत्त
उन्हीं में से
शायद एक वृत्त
तुम्हारा है
कभी-कभी समाने लगता है
एक में दूसरा वृत्त
पहला तीसरे में
फिर सारे वृत्त
एक वृहदाकार महावृत्त में
अचानक
सब गुम हो जाता है
मटमैले अथाह पानी में
तब वहाँ
न तुम होती हो
न मैं
न ही
कुचैली नदी
अक्टूबर, 2001
अगला चुनाव
वे कूद रहे हैं
लगातार कूद रहे हैं
एक ही जगह पर
फिर भी नहीं बना पाए
काल के दामन पर
एक भी गहरा निशान
उनके कूदने से
टूट रही हैं
जमीन की पपडि़याँ
जो धूल में बदलकर
ढक ले रही हैं
हरी पत्तियों को
उनके पैरों से
उगाई गई धूल
भर रही है नथुनों
दिल और दिमाग में
अब अपने लिए
वे खरीद लाए हैं
आक्सीजन नकाब
ताकि खड़े कर सकें
धूल के अनगिनत पहाड़
वे सुलगा रहे हैं
धूल भरी पत्तियों को
इस इरादे से
कि ढक सकें
सारा आकाश
उन्हें चलानी हैं
धूल भरी आँधियाँ
और फैला देनी है
चारों तरफ धुँध
अब वे बाँटेंगे
भोर के सपने
चलाएँगे
धूल हटाओ अभियान
कि लड़ सकें
धूल चिह्न पर
अगला चुनाव
लगातार कूद रहे हैं
एक ही जगह पर
फिर भी नहीं बना पाए
काल के दामन पर
एक भी गहरा निशान
उनके कूदने से
टूट रही हैं
जमीन की पपडि़याँ
जो धूल में बदलकर
ढक ले रही हैं
हरी पत्तियों को
उनके पैरों से
उगाई गई धूल
भर रही है नथुनों
दिल और दिमाग में
अब अपने लिए
वे खरीद लाए हैं
आक्सीजन नकाब
ताकि खड़े कर सकें
धूल के अनगिनत पहाड़
वे सुलगा रहे हैं
धूल भरी पत्तियों को
इस इरादे से
कि ढक सकें
सारा आकाश
उन्हें चलानी हैं
धूल भरी आँधियाँ
और फैला देनी है
चारों तरफ धुँध
अब वे बाँटेंगे
भोर के सपने
चलाएँगे
धूल हटाओ अभियान
कि लड़ सकें
धूल चिह्न पर
अगला चुनाव
अक्टूबर, 2001
|
लोगों की राय
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